निकलना पड़ा सिद्धार्थ को!

अपने यहां लोकतंत्र की लंबी परंपरा है। यह भले ही आज खाप पंचायतों के मौजूदा स्वरूप तक आकर विकृत हो गई हो। लेकिन हम अतीत में लोगों की सच्ची भागीदारी को साथ लेकर चलते रहे हैं। ऋग्वेद काल में भी ऐसा था और बुद्ध के जमाने में भी। हमारे यहां समान हित वाले लोगों के समूह आपस में बातचीत, सलाह और मतदान के जरिए अपने मामलों में निर्णय लेते थे। बुद्ध के समय में शासन से जुड़े रोजमर्रा के निर्णय ग्रामसभाओं में ही होते थे। राजा ग्रामसभा के निर्णय का सम्मान करता था। हालांकि उस वक्त राजा के लिए चुनाव नहीं होते थे और राजा का बेटा ही राजा बनता था।

सिद्धार्थ गौतम (जो बाद में बुद्ध बने) शाक्यों के राज्य कपिलवस्तु के राजकुमार थे। शासन का मुखिया राजा ही होता था लेकिन `संघ´ नाम की एक लोकतांत्रिक संस्था के जरिए ही राज्य के मामलों पर निर्णय लिया जाता था। 20 साल से ऊपर का हर शाक्य युवक संघ में भागीदारी करता था। सिद्धार्थ भी इस उम्र में आने के बाद संघ की कार्यवाही में हिस्सा लेने लगे थे। जब सिद्धार्थ 28 साल के थे तभी शाक्य और पड़ोसी राज्य कोलिया के बीच रोहिणी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर संघर्ष शुरू हो गया। यह नदी दोनों राज्यों की सीमा निर्धारित करती थी। कोलिया पर आक्रमण करने से पहले शाक्य सेनापति ने संघ की बैठक बुलाई। सिद्धार्थ ने युद्ध का विरोध किया और विवाद का शांतिपूर्ण तरीके से हल निकालने का प्रस्ताव दिया। लेकिन संघ के अन्य सदस्यों ने न सिर्फ इसका विरोध किया बल्कि मतदान के जरिए युद्ध का समर्थन भी किया।

इतना ही नहीं, इसके बाद संघ ने लोकतांत्रिक शक्ति का परिचय देते हुए कदम उठाए। समर्थन मिलने के बाद सेनापति ने पूरे राज्य में घोषणा करवा दी कि 20 से 50 साल के सभी शाक्य पुरुष कोलिया के खिलाफ युद्ध के लिए तैयार हो जाए। सिद्धार्थ ने ऐसा करने से मना कर दिया। सिद्धार्थ का यह निर्णय संघ में प्रवेश के समय ली जाने वाली शपथ के विरुद्ध था। इसलिए संघ सदस्य के रूप में अपनी जिम्मेवारी से मुकरने के कारण सिद्धार्थ को कपिलवस्तु छोड़ने की सजा दी गई। युद्ध के बारे में संघ के निर्णय को लेकर असहमति जताई जा सकती है लेकिन कपिलवस्तु में लोकतंत्र की सचाई को भी स्वीकार करना होगा। लोगों की सामूहिक ताकत के आगे एक राजकुमार की बातों का कोई महत्व नहीं था।

एक सच्चे और समृद्ध समुदाय के लिए, बुद्ध आमसभा का होना आवश्यक मानते थे, चाहे वो धर्मनिरपेक्ष हो या धार्मिक। इस सब में बुद्ध न्याय और धर्म के प्रति अपने व्यक्तिगत विचारों की बात नहीं करते। इसका आधार प्राचीन भारत की वह लोकतांत्रिक परंपरा है जिसमें बड़े पैमाने पर राजनीतिक अधिकार के बंटवारे की बात है। साथ ही जिस परंपरा में नियंत्रण और जोर-जबरदस्ती के बजाए बातचीत के माध्यम से शासन चलाने की संकल्पना है।

भारतीय इतिहास में स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र की मजबूती का एक और पुख्ता उदाहरण कांचीपुरम जिले में स्थित उत्तीरामेरुर मंदिर पर दर्ज है। इस मंदिर की दीवार पर सातवीं शताब्दी के मध्य में प्रचलित ग्रामसभा व्यवस्था का संविधान लिखा है, इसमें चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक योग्यता, चुनाव की विधि, चयनित उम्मीदवारों के कार्यकाल, उम्मीदवारों के अयोग्य ठहराए जाने की परिस्थितियां और लोगों के उन अधिकारों की भी चर्चा है कि जन प्रतिनिधि अपनी जिम्मेवारियों का निर्वहन ठीक से नहीं करते थे तो लोग उन्हें वापस बुला सकते थे।

ग्रामसभाओं के पास न्यायिक और कार्यकारी शक्तियां थी। ग्रामसभा अपराधियों और निकम्मे जन प्रतिनिधियों जुर्माना लगाने और वसूलने के लिए अधिकृत थीं। चुने गए जन प्रतिनिधियों पर ग्राम सभा की नजर रहती थी, जिसमें गांव के अधिसंख्य लोग और स्वयं जन प्रतिनिधि भी शामिल रहते थे। उपलब्ध रिकॉर्ड के मुताबिक गांव वाले खुद जन सेवाओं से जुड़े नियम और कानून पास करते थे। जैसे – सोने की गुणवत्ता की जांच, उच्च शिक्षण संस्थान, गांवों के तालाब का रख-रखाव इत्यादि। प्रत्येक जन सेवा को विभिन्न समुदायों के लोगों से बनी समितियों के हवाले कर दिया जाता था। इसमे लोगों की विशेषज्ञता और समिति के लोगों के साथ भेद-भाव न हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था।

लोकतांत्रिक सभ्यता का सबसे पुराना उदाहरण ऋग्वेद काल यानि प्राचीन भारत में भी मिलता है। वैदिक काल में गांव, प्रशासन की आधार इकाई थी। राज्य में भले ही राजशाही थी। लेकिन उस वक्त भी सभा और समिति नाम की दो लोकतांत्रिक संस्थाएं थीं। सभा आदिवासियों की चुनी हुई संस्था थी जबकि समिति में सभी आदिवासी लोग शामिल होते थे, जो किसी विशेष अवसर पर इकट्ठे होते थे। सभा और समिति राजा की शक्तियों पर नियंत्रण रखने का काम करती थी। ऋग्वेद में सभा और समिति को हिंदु देवता प्रजापति या ब्रह्मा की बेटियों का दर्जा दिया गया है।

रामायण में भी राम के राज्याभिषेक के लिए राजा दशरथ और एक समिति के बीच चर्चा का उल्लेख है। इसके बाद प्राचीन भारत में कई सारे गणतंत्र हुए जिनमें कुछ तो ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भी पहले और कुछ बुद्ध के जन्म से भी पहले के थे। ये गणराज्य महा जनपद के नाम से जाने जाते थे। इनमें वैशाली को (वर्तमान में भारत का एक राज्य, बिहार) विश्व का पहला गणतंत्र होने का गौरव प्राप्त है।

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के आने से पहले हिंदू, मुस्लिम और पेशवा शासन के जमाने तक ग्रामीण गणराज्य फल-फूल रहे थे। राजवंशों के विघटन और साम्राज्यों के उतार-चढ़ाव से कभी इन पर फर्क नहीं पड़ा। स्थानीय शासन के स्वतंत्र विकास से गांवों को एक ऐसा कवच मिला था जहां राष्ट्रीय संस्कृति जब-तब उठने वाले राजनीतिक बवंडर से खुद अपनी रक्षा कर सकती थी। राजा गांवों से केवल राजस्व प्राप्त करता था और आमतौर पर स्थानीय शासन में हस्तक्षेप नहीं करता था। इस पर सर चार्ल्स ट्रेवेलिन की टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण है, “एक के बाद एक विदेशी आक्रांताओं ने भारत पर आक्रमण किए लेकिन गांव की स्वशासन व्यवस्था अपने जमीन से इस तरह चिपकी रही जैसे मिट्टी से घास।”

1830 में भारत के तत्कालीन कार्यवाहक गवर्नर जनरल सर चार्ल्स मेटकॉफ ने लिखा, “ग्रामीण समुदाय गणतांत्रिक हैं और उनके पास वो सब कुछ है जिसकी उन्हें जरूरत है और ये गांव किसी भी विदेशी संबंध से मुक्त हैं। कई राजे-महाराजे आए और गए, क्रांतियां होती रहीं लेकिन ग्रामीण समुदाय इस सब से अछूता रहा। ग्रामीण समुदायों की शक्तियां इतनी थी मानो सब के सब अपने आप में एक अलग राज्य हों, मेरे विचार से तमाम आक्रमणों के बीच भी भारतीय लोगों के बच पाने का मुख्य कारण भी यही रहा। जिस तरह की आज़ादी और स्वतंत्रता में यहां के लोग प्रसन्नता से जी रहे हैं, उसमें प्रमुख योगदान इस (व्यवस्था) का ही है। मेरी इच्छा है कि गांवों के इस संविधान को कभी छेड़ा न जाए और हर वह खतरा जो इस (व्यवस्था) को तोड़ने की दिशा में ले जाता हो, उससे सावधान  रहा जाए।”

लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। ईस्ट इंडिया कंपनी की दुर्भावना और लालच ने धीरे धीरे इन गावों को तोड़ दिया। ब्रिटिश नौकरशाहों के हाथ में सारी कार्यकारी और न्यायिक शक्तियों के चले जाने के कारण गांव अपने सदियों पुराने अधिकार और प्रभाव से वंचित हो गए। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के बाद भी हम उसी व्यवस्था को बनाए हुए हैं जिसके जरिए हमारी परंपरा के सकारात्मक तत्वों को कुचला गया था।

साभार: स्वराज अभियान (प्रकाशित लेख के संपादित अंश)

1 Comment

  1. Quite informative sir.

    Indeed a pleasure to read.

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