कंपनी में चेयरमैन से ज्यादा अहमियत सीईओ की होती है। उसी तरह जैसे देश में राष्ट्रपति से ज्यादा अहमियत प्रधानमंत्री की होती है। कंपनी का सीईओ जो चाहे कर सकता है, हालांकि उसे निदेशक बोर्ड की मंजूरी लेनी पड़ती है। हमारा प्रधानमंत्री भी चाहे जो फैसले कर सकता है, हालांकि उसे पार्टी के हाईकमान और मंत्री-परिषद को साथ लेकर चलना होता है। पर मुश्किल यह है कि हमारे यहां देश से लेकर कंपनियों तक में खानदारी सफाखानाऔरऔर भी

आप मानें या न मानें, हमारे पूरे हिंदी समाज में ज्ञान का डेफिसिट, ज्ञान का घाटा पैदा हो गया है। सरकार घाटे को उधार लेकर पूरा करती है। लेकिन ज्ञान का घाटा केवल उधार लेकर पूरा नहीं किया जा सकता। उधार के ज्ञान से प्रेरणा भर ली जा सकती है। उसका पुनर्सृजन तो अपने ही समाज और अपनी ही मिट्टी व भावभूमि से करना पड़ता है। हिंदी में लोगबाग कविताएं ठोंक कर लिखते हैं। लेकिन जहां गद्यऔरऔर भी

अनिल रघुराज अमेरिका में कैलिफोर्निया प्रांत के माउंटेन व्यू शहर में घर पर डिनर किया, टोक्यो में ब्रेकफास्ट, सिंगापुर में लंच, फिर डिनर के वक्त बेंगलुरू जा पहुंचा। मौसी के घर जाकर सबसे मिला। अगले दिन वापस अमेरिकी प्रवास के लिए रवाना। फिर वीकेंड में पहुंच गया कनाडा के ओंटारियो प्रांत के यॉर्क मिल्स शहर में अपने भारतीय दोस्त से मिलने। भारत में जन्मा, अमेरिका में नौकरी। दोस्त सारी दुनिया में बिखरे हुए। काम के सिलसिले मेंऔरऔर भी

अनिल रघुराज हमारे यहां बैंगन को भांटा कहते हैं। इस भांटे की स्थिति यह है कि बचपन में किसी को चिढ़ाने के लिए हम लोग कहते थे – आलू भांटा की तरकारी, नाचैं रमेशवा की महतारी। रमेशवा की जगह इसमें, नाम किसी का भी – जयराम, मनमोहन, पवार, सिब्ब्ल या सोनिया रखा जा सकता था। मेरे बाबूजी मुंबई (तब की बंबई) में एक कपड़े की दुकान पर काम करने आए। उन्हें अक्सर हर दिन भांटे की तरकारीऔरऔर भी

अर्थकाम हिंदी समाज का प्रतिनिधित्व करता है। यह 42 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले उस समाज को असहाय स्थिति से निकालकर प्रभुतासंपन्न बनाने का प्रयास है जो फैसला करने की स्थिति में नहीं है। उसे घोड़ा बनाकर कोई और उसकी सवारी कर रहा है। इसका अधिकांश हिस्सा ग्राहक है, उपभोक्ता है, लेकिन वह क्या उपभोग करेगा, इसे कोई और तय करता है। वह अन्नदाता है किसान के रूप में, वह निर्यातक है सप्लायर है छोटी-छोटी औद्योगिकऔरऔर भी