पहुंच नहीं तो विकास नहीं

वित्तीय समावेश क्यों महत्वपूर्ण है? सीधी-सी बात कि यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यह बराबरी वाले विकास को लाने और टिकाए रखने की आवश्यक शर्त है। ऐसे बहुत ही कम दृष्टांत हैं जब कोई अर्थव्यवस्था कृषि प्रणाली से निकलकर उत्तर-औद्योगिक आधुनिक समाज तक व्यापक आधारवाले वित्तीय समावेश के बिना पहुंची हो। हम सभी अपने निजी अनुभव से जानते हैं कि आर्थिक अवसरों का गहरा रिश्ता वित्तीय पहुंच से होता है। ऐसी पहुंच खासकर गरीबों के लिए बहुत मायने रखती है क्योंकि यह उन्हें बचत संजोने, निवेश करने और उधार लेने के अवसर देती है। इससे उन्हें हारी-बीमारी, परिवार में मौत या रोजगार छिन जाने जैसी आफत से लड़ने का सहारा भी मिल जाता है।

लेकिन भारत में वित्तीय क्षेत्र से बाहर छूट गए लोगों का आंकड़ा दिल को बैठाकर रख देता है। देश की कुल 6 लाख बसाहटों में से केवल लगभग 30,000 या महज 5 फीसदी में किसी वाणिज्यिक बैंक की शाखा है। तकरीबन 40 फीसदी भारतीयों के पास ही बैंक खाता है। देश के उत्तर-पूर्वी हिस्से में तो यह अनुपात और भी ज्यादा कम है। ऐसे लोगों की संख्या जिनके पास किसी न किसी किस्म का जीवन बीमा कवर है, केवल 10 फीसदी है। साधारण बीमा की बात करें तो यह सुविधा लेनेवालों का अनुपात एक से भी कम 0.6 फीसदी है। देश में डेबिट कार्ड रखनेवालों की संख्या आबादी की सिर्फ 13 फीसदी है और क्रेडिट कार्ड रखनेवाले तो महज 2 फीसदी हैं।

यह आंकड़े कितने भी चौंकानेवाले हों, लेकिन ये देश में वित्तीय बहिष्कार की वर्तमान स्थिति को पूरा बयां नहीं करते। जहां बैंक खाते खोल देने का दावा किया गया है, वहां जांचने पर पाया गया कि इनमें से बहुत सारे खाते डॉरमैंट या बंद पड़े हैं। बहुत ही कम खातों में कोई बैंकिंग ट्रांजैक्शन होता है और कुछ ही खातों में कोई उधार लिया जाता है। इस तरह देश के करोडों लोगों को अपनी कमाऊ क्षमता और उद्यमी प्रतिभा को विकसित करने का मौका नहीं मिलता और वे हाशिए और गरीबी में रहने को अभिशप्त हैं।

लेकिन इस कहानी का एक धवल पक्ष भी है। बिजनेस स्ट्रैटेजी के कोर्स में एक कहानी पढ़ाई जाती है। किसी जूता कंपनी ने अपने बिजनेस एग्जीक्यूटिव को एक बड़े विकासशील देश में भेजा कि वह पता लगाए कि वहां बाजार की कितनी संभावना है। उसने जाकर देखा तो पाया कि वहां के लाखों लोग नंगे पांव बिना किसी जूते-चप्पल के चलते हैं। उसने वापस आकर कंपनी प्रबंधन को बताया कि वहां कारोबार की कोई संभावना नहीं है क्योंकि वहां कोई जूते पहनता ही नहीं। कुछ महीनों बाद उसकी प्रतिस्पर्धी कंपनी का अधिकारी वहां गया और यही सब उसने भी देखा। लेकिन उसने लौटकर कंपनी को बताया कि वहां तो धंधे की जबरदस्त गुंजाइश है क्योंकि वहां तो हर किसी को जूते बेचे जा सकते हैं। अंततः, यह माइंडसेट का सवाल है। अगर इससे वास्ता रखनेवाले हम सभी लोग अपना माइंडसेट बदल लें तो हम वित्तीय समावेश को एक हकीकत बना सकते हैं।

वित्तीय समावेश पर कैसे काम किया जा सकता है? आम धारणा के विपरीत वित्तीय समावेश एक संभावनामय व व्यवहार्य बिजनेस साध्य है। मुंबई की औद्योगिक झोपड़पट्टी धारावी का उदाहरण लेते हैं। विकिपीडिया के मुताबिक धारावी से हर साल 50 से 65 करोड़ डॉलर का माल निर्यात होता है। यह देश के सबसे ज्यादा बैंकों वाले शहर मुंबई के बीचोबीच है, मुंबई के वित्तीय केंद्र बांद्रा-कुरला कॉम्प्लेक्स से सटी हुई है। फिर भी कारीगरों की बस्ती और निर्यात के लिए ख्यात होने के बावजूद यहां लंबे समय तक वाणिज्यिक बैंक की कोई शाखा नहीं थी। ऐसी पहली शाखा वहां फरवरी 2007 में खोली गई। और, केवल तीन सालों में बैंक से अपनी इस शाखा से 44 करोड़ रुपए से ज्यादा का बिजनेस हासिल कल लिया। इस सफलता से उत्साहित होकर दूसरे बैंक मे भी धारावी में अपनी शाखा खोल दी है। धारावी में इस समय 9 एटीएम हैं और सभी बराबर इस्तेमाल किए जाते हैं। इस उदाहरण से पता चलता है कि कैसे बिना बैंकिंग सेवा वाले इलाकों में पहुंचना अवाम और बैंक दोनों के ही लिए फायदे की स्थिति है।

वित्तीय समावेश को आगे बढ़ाने के लिए सरकार और रिजर्व बैंक कई तरह के काम कर रहे हैं। उत्तर-पूर्व में बैंकिंग की पहुंच बढ़ाने के लिए रिजर्व बैंक ने राज्य सरकारों व बैंकों से ऐसी जगहों का पता लगाने को कहा है जहां संपूर्ण शाखा खोलने, विदेशी मुद्रा सुविधा देने, सरकारी कामकाज संभालने और मुद्रा की जरूरतों को पूरा करने की सुविधा चाहिए। अगर राज्य सरकार आवश्यक परिसर और सुरक्षा इंतजाम मुहैया करा देती है तो रिजर्व बैंक इसके लिए पूरी पूंजी देने और पांच साल तक चलाने का सारा खर्च उठाने को तैयार है।

भारत सरकार ने इसके लिए दो फंड बनाए हैं। वित्तीय समावेश के प्रोत्साहन व विकास की लागत उठाने के लिए फाइनेंशियल इन्क्लूजन फंड और इसको आवश्यक तकनीक मुहैया कराने के लिए फाइनेंशियल इन्क्लूजन टेक्नोलॉजी फंड। इन दोनों में अलग-अलग 500 करोड़ रुपए की रकम रखी गई है।

वित्त मंत्री ने इस साल के बजट में घोषणा की है कि देश में 2000 से ज्यादा आबादी वाले हर गांव में मार्च 2012 तक वित्तीय सेवाएं पहुंच जानी चाहिए। ईंट-गारे से बनी शाखाएं भी बढ़ेंगी, लेकिन इससे भी ज्यादा काम की होगी बिजनेस करेस्पॉन्डेंट (बीसी) पर आधारित शाखा-विहीन बैंकिंग। इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए रिजर्व बैंक ने बीसी के चयन का दायरा काफी बढ़ा दिया है।

हम सभी नंदन नीलकणी की अध्यक्षता में चल रहे भारत सरकार के यूनीक आइडेंटीफिकेशन नंबर (यूआईडी) प्रोजेक्ट, आधार से वाकिफ हैं। हालांकि यूआईडी का मुख्य उद्देश्य देश में हर किसी को अलग आईडी नंबर देना है। लेकिन आधार बैंकों के केवाईसी (अपने ग्राहक को जानो) मानकों को पूरा करने के लिए गरीबी को अपनी पहचान साबित करने में बहुत मददगार साबित होगा। इससे बैंकों और संभावित ग्राहक दोनों का खर्च और झंझट कम होगा। यूआईडी ने दिखा दिया है कि तकनीक कैसे गरीबों को फायदा पहुंचा सकती है।

– रिजर्व बैंक के गवर्नर डॉ. दुव्वरी सुब्बाराव द्वारा आईडीआरबीटी, हैदराबाद में बैंकिंग टेक्नोलॉजी एक्सेलेंस एवॉर्ड 2009 समारोह में दिए गए भाषण के चुनिंदा अंश

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *