राजकोष बनाम प्रजाकोष

।।पंकज जाइसवाल*।।

प्रकाश झा की फिल्म ‘सत्याग्रह’ का सबसे मूल बिन्दु अमिताभ बच्चन द्वारा कलेक्टर के मुंह पर मारा गया एक थप्पड़ है जिसमे वो कहते हैं कि हम जनता हैं और तुम जनता के नौकर हो। बहुत साफ सीधा और गूढ़ संदेश है फिल्म के इस हिस्से में। साथ ही जब अजय देवगन अमिताभ की गिरफ्तारी के खिलाफ आधुनिक आंदोलन चला रहे होते हैं तो फेसबुक पर कुछ नारों का निर्माण होता है जिसे सिर्फ एक झलक मे दिखाया गया है जिसमे लिखा गया था No Service No Tax. मेरे हिसाब से फिल्म का यह सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन के अर्थ को रेखांकित करने के लिए।

मैं इसी फ्रेमं में आपका ध्यान सरकार की चार लोकलुभावन घोषणाओं की तरफ ले जाना चाहूंगा। पहली किसान कर्ज माफी, दूसरी डायरेक्ट सब्सिडी, तीसरी फूड बिल और चौथी भूमि सुधार बिल। सरकार का साथ मे यह भी इरादा है कि सब्सिडी का बोझ राजकोष में कम किया जाए और योजनागत मदों में कटौती की जाए। मेरा मानना है कि यह नकारात्मक अर्थशास्त्र है जिसमे फोकस सिर्फ राजकोष पर है। सामाजिक अर्थशास्त्र कभी इसकी इजाजत नहीं देता। हमारे गांवों और कस्बों ने कभी सरकार से यह सवाल किया ही नहीं कि आप हमसे कितना लेते हो और बदले मे कितना देते हो। पहली बार सरकार उन्हें अहसास कराने के लिए डायरेक्ट सब्सिडी स्कीम लाई है ताकि ग्रामीणों को बताया जा सके कि सरकार उनके लिए कितना त्याग करती है। सरकार को यह अहसास ही नहीं है कि गांव के किसान अपनी ज़मीनों को कृषियोग्य रखकर मानवता के साथ कितना बड़ा अहसान कर रहें है जबकि शहरी आबादी की जमीन करोड़ों की हैं और उनकी जमीन कौड़ियों की।

सरकार को हर कृषियोग्य जमीन के एवज में किसानों व ग्रामीणों को सब्सिडी देनी चाहिए क्योंकि अपनी ज़मीन को वे कृषि से इतर कामों में न लगाकर एक तरह से अवसर त्याग करते हैं जिसका मूल्यांकन कोई नहीं करता। राजकोष के पैरोकारों को इनका यह त्याग दिखाई क्यों नहीं देता? कोई किसान अपना एक एकड़ खेत पांच लाख मे बेचकर आराम से सालाना 50,000 ब्याज कमा सकता है। लेकिन देश के पेट का ठेका लेने के बाद भी उसे खेती से प्रति एकड़ 50,000 रुपए तक नहीं मिलते।

अलबत्ता सरकार द्वारा अहसान का एहसास जरूर मिलता है कि आपका कर्जा माफ, आपकी सब्सिडी खत्म। अगर किसानों के अवसर त्याग की कीमत ही जोड़ी जाए तो पूरी कर्ज माफी और सब्सिडी भी कम पड़ जाएगी इसकी भरपाई के लिए। दरअसल डायरेक्ट सब्सिडी गरीबों को सीधे फायदा पहुंचाने से ज्यादा सत्ता द्वारा अपने तथाकथित अहसानों का दिखावा है। अब वक़्त आ गया है कि ग्राम पंचायतें वित्तीय रूप से भी अपने अधिकारों को बात करें। तभी ग्राम स्वराज्य आ सकता है और पंचायतों को पूर्ण स्वतन्त्रता मिल सकती है।

अवसर त्याग के नुकसान की बात छोड़ दें, तब भी खुली आंख से देखने पर सरकार प्रति ग्रामीण औसतन 5000 रुपये प्रति वर्ष विभिन्न अप्रत्यक्ष और सेवा करों के माध्यम से लेती है। यही आंकड़ा कस्बों के लिए प्रति व्यक्ति 7500 रुपए, गोरखपुर जैसे शहर के लिए 11,000 रुपए और नोएडा जैसे शहर के लिए 20,000 रुपए है। ये अनुमान ही हैं लेकिन सरकार के आंकड़ों को समझने के लिए काफी हैं।

उसके ऊपर सरकार ग्राम प्रधान से आशा तो बहुत करती है। लेकिन उसे देती क्या है? 500 रुपए महीने मतलब 20 रुपए रोज। इतनी कम तनख्वाह तो मजदूर की भी नहीं होती। सरकार बिना तनख्वाह के उससे काम और उसके ऊपर ईमानदारी की उम्मीद कैसे कर सकती है?

दरअसल, सरकार की ग्रामीण नीतियां वित्तीय स्तर पर व्यावहारिक नहीं दिखतीं। अब देखते हैं कि सरकार ग्रामीण स्तर पर कितना वसूल करती है? मान लें कि ग्रामसभा की आबादी 3000 है तो सरकार उनको इसके बदले मे कितना देती है, इसका आंकड़ा नीचे दिया गया है…

ग्राम खाता  (करोड़ रुपए में )
विवरण मूल्य
जनसंख्या 3000
प्रति व्यक्ति टैक्स भार (रु.) 5000
कुल प्राप्ति गांव वालों से 1.50
विकास फंड 0.05
पुलिस चौकीदार वेतन 0.02
हॉस्पिटल सुविधा 0.00
स्कूल सुविधा 0.12
सड़क निर्माण 0.00
अन्य योजनाएं 0.12
कुल खर्च गांव के लिए 0.31
बाकी पैसा सरकार खाते में 1.19
गांवों के टैक्स में उनका हिस्सा 21%
गांवों के टैक्स में सरकार का हिस्सा 79%

 

आपने देखा कि सरकार 1.50 करोड़ रुपए एक गांव से वसूलती है और बदले में उस गांव को देती है एक पुलिस चौकीदार, एक प्राइमरी स्कूल, प्रति वर्ष औसतन 5 लाख का फंड। हॉस्पिटल तो है नहीं और सड़क तो कभी-कभार ही बनाती है। अन्य कृषि संबंधी सरकारी कार्यों को जोड़ दे तो कुल रकम 12 लाख से ज्यादा नहीं आएगी। इस तरह सरकार देती है सिर्फ 31 लाख।

बाकी के 119 लाख रुपए सरकार कहां ले जाती है, आपने तो कभी पूछा ही नहीं। दरअसल वो इससे नोएडा की सड़क बनाती है, लखनऊ की मेट्रो बनाती है और वो सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि नोएडा और लखनऊ वाले सवाल करते हैं, उनके पैरोकार (सांसद और विधायक) सवाल करते हैं। आप तो करते नहीं हैं, आपका प्रतिनिधि तो करता ही नहीं। इसलिए आपको मिलता है झुनझुना। आपके ही पैसे से नियुक्त हुए कर्मचारियों के पास आपको लगानी पड़ती है दौड़ क्योंकि आपको एहसास ही नहीं है कि सरकार आपकी ट्रस्टी, सरकारी कर्मचारी आपके नौकर और आप देश के मालिक हैं। सबने आपको गंवार समझा है। जाति और धर्म का वोट बैंक बनाकर रखा है। आपको कभी एहसास ही नहीं होने देते है कि उन्हे आपने नियुक्त किया है। और आप भी कभी सवाल नहीं करते। आपको लगता है कि हमारा पैरोकार (विधायक और सांसद) कोई बाबू ही बन सकता है।

और तो और, सरकार आपसे शुद्ध बनिए की तरह बात करती है। बार बार अपनी जेब (राजकोषीय घाटे) की बात करती है। अपना रिटर्न तो आपको देती नहीं और आप से, एक-एक व्यक्ति से आय का रिटर्न मांगती है। बिजली देती नहीं है और कहेगी कि ऑनलाइन ही विवरण देना ताकि आपके ऊपर अपराधी होने की तलवार लटकती रहे। सरकार का पैसा आपने रोक दिया तो ब्याज भी दो, पेनाल्टी भी दो और अगर ज्यादा बाकी लगा दिया तो गैर जमानती वारंट के साथ जेल भी जाओ। भले आप अपना पैसा अपने देनदारों से न वसूल पाए हों। सत्ता आपके पीछे आपके ही पैसे से पोषित कर्मचारियों को लगा देगी आपसे वसूली के लिए। फिर भी अहसान जताती है सब्सिडी का। दरअसल प्रजातन्त्र में  उसे प्रजाकोष से कोई मतलब ही नहीं है। उसे चाहिए बस शाही खजाना।

सवाल आपको करने पड़ेंगे। ग्राम और कस्बा स्तर की वित्तीय स्वतन्त्रता आपको लेनी पड़ेगी। यह ठीक है कि आप टैक्स लगाने वाले अधिकरण नहीं हो सकते। लेकिन आपके गांवों और कस्बों द्वारा उपभोग के माध्यम से दिए जानेवाले टैक्स और उसके बदले में सरकार क्या दे रही है, इसका हिसाब तो करना ही पड़ेगा। नहीं तो सरकार बार-बार आपको आंख तरेरेगी और आप अपने पैरोकार के यहां लाइन लगाएंगे। आपको यह एहसास भी नहीं दिलाया जाएगा कि आप ही प्रजातन्त्र मे मालिक हैं और आपका कोष पहले है।

*लेखक मुंबई में कार्यरत जानेमाने सीए हैं। आप उनसे उनके ई-मेल pankaj@anpllp.com पर संपर्क कर सकते हैं।

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  1. Good reasonable response

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