अनुभूति पहले आती है। शब्द बाद में आते है। शब्दों के खो जाने के बाद भी अनुभूति बची रहती है क्योंकि वही मूल है, शब्द तो छाया हैं। दोनों में द्वंद्व है समाज और व्यक्ति का, इतिहास और वर्तमान का।और भीऔर भी

कोई इंसान सुखी हो, इसका मतलब कतई यह नहीं कि वह खुश भी हो। खुशी तो एक अनुभूति है जिसका पारा ऊपर-नीचे होता रहता है। खुश रहना एक कला है, जिसकी आदत बड़े जतन से डालनी पड़ती है।और भीऔर भी

बस एक छाप, अनुभूति या आत्मा भर बची रह गई। क्या करूं उसका? महसूस कर सकता हूं पर देख नहीं सकता, छू नहीं सकता। शब्दों के शरीर में ढाल नहीं सका तो सब कुछ रहते हुए भी कुछ नहीं रहा।और भीऔर भी