समाज का मुलम्मा भले ही लगा हो, लेकिन हमारी सारी भावनाओं का स्रोत मूलतः प्रकृति ही होती है। शरीर के रसायन और खुद को संभालने व गुणित करते जाने का प्राकृतिक नियम हमें नचाता रहता है। हमारा अहं भी प्रकृति की ही देन है।और भीऔर भी

हमारा तारणहार, हमारा मुक्तिदाता कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंदर बैठा है। वह प्रकृति का वो जटिल समीकरण है, उसके तत्वों का वो विन्यास है जो हमसे पूछे बिना हमें चलाता-नचाता रहता है।और भीऔर भी