स्वार्थों का जमावड़ा है बाज़ार। तगड़ी मारामारी। किस्मत नहीं, अक्ल का खेल चलता है। जिसमें जितना हुनर, जितनी बुद्धि, जितनी जानकारी, जितनी सावधानी, वह उतना ही कामयाब। लेकिन किताबी ज्ञान भी नहीं चलता। मने बद्धू आवड़ेछे (एमबीए) का गुरूर नहीं चलता। समझ व्यावहारिक होनी चाहिए। बहुत से एमबीए यहां फेल हो जाते हैं। एक बात मन में कहीं गहरे बिठा लें कि पैसा बनाने का कोई शॉर्टकट नहीं है। पैसा या धन समाज की तरफ से सदियोंऔरऔर भी

सरकार को माई-बाप और सरकारी अफसर को मालिक समझने की मानसिकता जब तक नहीं जाती, तब तक पांच के बजाय अगर हर साल चुनाव होने लग जाएं, तब भी देश में सच्चा लोकतंत्र नहीं आ सकता।और भीऔर भी

इस समय पूंजी बाजार से रिटेल निवेशक या आम निवेशक कन्नी काट चुके हैं। सेकेंडरी बाजार या शेयर बाजार में उनका निवेश लगभग सूख चुका है। दूसरी तरफ, जो प्राइमरी बाजार कुछ साल पहले तक आम निवेशकों का पसंदीदा माध्यम बना हुआ था, वहा भी अब आईपीओ (शुरुआती पब्लिक ऑफर) व एफपीओ (फॉलो-ऑन पब्लिक ऑफर) में लोगबाग पैसे नहीं लगा रहे हैं। लगाएं भी तो कैसे। कमोबेश हर आईपीओ या एफपीओ लिस्ट होने के बाद इश्यू मूल्यऔरऔर भी