सृजन व पीड़ा में अभिन्न रिश्ता है। प्रकृति ने तो सृजन की हर प्रक्रिया के साथ खुशी व उन्माद के ऐसे भाव जोड़ रखे हैं कि पीड़ा गौड़ हो जाती है। सामाजिक सृजन में इंसान को यह काम खुद करना पड़ता है।और भीऔर भी

परिवार के लिए आप यकीनन मूल्यवान हैं। लेकिन अपना सच्चा सामाजिक मूल्य समझना हो तो बस इतना सोचकर देखें कि आपके बिना यह दुनिया कैसे चलती है और आपके न होने से कितना फर्क पड़ेगा।और भीऔर भी

देखने में सफलता कितनी भी व्यक्तिगत लगे, लेकिन मूलतः वह सामाजिक होती है। कोई विचार कितना ही अच्छा क्यों न हो, वह तब तक सफल नहीं होता जब तक उसे सामाजिक तानाबाना नहीं मिलता।और भीऔर भी

हम जैसे-जैसे बढ़ते हैं, सामाजिक होते जाते हैं, वैसे ही वैसे हमारे पूर्वाग्रह बढ़ते जाते हैं। हार्मोंस के आग्रह इन पूर्वाग्रहों के साथ मिलकर मायाजाल बना देते हैं। सही शिक्षा का काम इसी मायाजाल को काटना है।और भीऔर भी

जो मनोरंजन हमारी पशु-वृत्तियों को पोसता है, वो कभी हमें आगे नहीं ले जा सकता। सार्थक मनोरंजन वही है जो बतौर इंसान हमें ज्यादा संवेदनशील बनाए, एकाकीपन से निकालकर ज्यादा सामाजिक बनाए।और भीऔर भी

पशु वृत्तियां हम पर उसी हालत में हावी होती हैं जब हम सामाजिक कम और एकाकी ज्यादा होते हैं। इसलिए अपने अंदर के पशु को इंसान बनाना है तो हमें ज्यादा से ज्यादा सामाजिक होना पड़ेगा।और भीऔर भी