अपना हाल हम ही जानते हैं या मानते हैं कि भगवान जानता है। दूसरों का हाल हम पूछते नहीं, न ही उसकी परवाह करते हैं। लेकिन चाहते हैं कि दूसरा हमारी परवाह करे। नहीं करता तो उसे निपट स्वार्थी बताते हैं। पर, अपनी तरफ देखने की जहमत नहीं उठाते।और भीऔर भी

भगवान या तो अदृश्य बैक्टीरिया है या वायरस या किसी किस्म की चुम्बकीय शक्ति। तीनों ही स्थितियों में उससे डरने की नहीं, निपटने की जरूरत है। लेकिन अंध आस्था में हम देख नहीं पाते कि भगवान से डराकर दूसरा अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहा है।और भीऔर भी

स्वार्थ पर टिकी इस दुनिया में भी लोग परमार्थी हो सकते हैं। लेकिन कोई हमारा इतना हितैषी क्यों बन रहा है? दूसरे की सलाह पर गौर करते हुए हमें खुद से यह सवाल जरूर पूछना चाहिए। अपने स्वार्थ की साफ समझ इसी तरह से बनती है।और भीऔर भी

शब्दों का शोर है, घटाटोप है। अर्द्धसत्य का बोलबाला है। हर कोई अपने स्वार्थ के हिसाब से सत्य को परिभाषित करने में जुटा है। ऐसे में निरपेक्ष सत्य क्या है? बहुजन के हितों का पोषक सत्य क्या है? यह खुद बहुजन को ही खोजकर निकालना होगा।और भीऔर भी

चप्पे-चप्पे पर कोई न कोई काबिज़ है। हर विचार किसी ब्रह्म ने नहीं, इंसान ने ही फेंके हैं और उनके पीछे किसी न किसी का स्वार्थ है। हम भी स्वार्थ से परे नहीं। ऐसे में विचारों को अगर निरपेक्ष सत्य मानते रहे तो कोई दूसरा हमें निगल जाएगा।और भीऔर भी

नितांत आत्मीय रिश्ते ही भावना-प्रधान होते हैं। बाकी सभी मित्र और नाते-रिश्तेदार काम खत्म, पैसा हज़म का नाता रखते हैं। उनसे इससे ज्यादा अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि हम भी तो यही करते हैं।और भीऔर भी