हमारी मान्यताएं एक तरफ। व्यावहारिक व व्यावसायिक सोच एक तरफ। दोनों अलग-अलग खानों में बंटी हुई। मगर जीवन तो मूलतः एक ही खंड है, समरूप है। ऐसे में होता यह है कि मान्यता और सोच की खींचतान में जीवन ही विखंडित हो जाता है।और भीऔर भी

आदर्श हालात या आदर्श अवसर जैसी कोई चीज व्यवहार में नहीं होती। जो इसकी बाट जोहते हैं, वे मंजिल तक पहुंचना तो दूर, चल ही नहीं पाते। इसलिए थोड़ा कम की आदत डाल लेना ही सही है।और भीऔर भी

एक बात गांठ बांध लें कि इस दुनिया में सबकी जगह है। लेकिन हर जगह सबकी नहीं है। इसलिए हर कामयाब आदमी को देखकर उसके जैसा बनने की तमन्ना न अच्छी होती है और न ही व्यावहारिक।और भीऔर भी

ट्यूब पर कठोर टायर न लगाया जाए तो गाड़ी चल नहीं सकती। कछुए की कठोर खोल न हो, शाही के लंबे काँटे न हों तो कोई भी उन्हें खा जाए। इसी तरह समाज में बहुत सीधा होना भी अच्छा नहीं।और भीऔर भी