हम सभी मूलतः साधु स्वभाव के हैं। औरों की बातों से अपने काम का ‘सार’ ही ग्रहण करते हैं। लेकिन आलोचना को बिना विचलित हुए सुनना और गुनना जरूरी है क्योंकि अक्सर उनसे नई दृष्टि मिल जाती है।और भीऔर भी