छासठ साल कम नहीं होते बंद गांठों को खोलने के लिए। लेकिन नीयत ही न हो, सिर्फ साधना का स्वांग चल रहा हो तो कुंडलिनी मूलाधार में ही कहीं सोई पड़ी रहती है। आज़ादी के बाद देश की उद्यमशीलता को जिस तरह खिलना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ। सच कहें तो सायास ऐसा होने नहीं दिया गया। उद्योगों को मंदिर मानने, हाइब्रिड बीजों से आई हरित क्रांति और अर्थव्यवस्था को खोलने के पीछे बराबर एक पराश्रयी सोचऔरऔर भी

एक बार भोले शंकर ने दुनिया पर बड़ा भारी कोप किया। पार्वती को साक्षी बनाकर संकल्प किया कि जब तक यह दुष्ट दुनिया सुधरेगी नहीं, तब तक शंख नहीं बजाएंगे। शंकर भगवान शंख बजाएं तो बरसात हो। बरसात रुक गई। अकाल-दर-अकाल पड़े। पानी की बूंद तक नहीं बरसी। न किसी राजा के क्लेश व सन्ताप की सीमा रही और न किसी रंक की। दुनिया में त्राहिमाम-त्राहिमाम मच गया। लोगों ने मुंह में तिनका दबाकर खूब ही प्रायश्चितऔरऔर भी